पार्वती ने कठिन तपस्या से भगवान शिव को प्राप्त किया
कथा के तीसरे दिन कामदेव के भस्म होने और पार्वती की तपस्या,शिव चरित्र की कथा सुनाई
खरसिया। दिवसीय श्री शिव महापुराण कथा अमृत वर्षा के दौरान तीसरे दिन मंगलवार को शिव-पार्वती विवाह एवं शिव चरित्र का वर्णन किया गया। कथावाचक संत चिन्मयानंद जी बापू ने जीवन में राम नाम स्मरण का महत्व समझाते हुए शिव-पार्वती विवाह का प्रसंग सुनाया। सुंदर-सुंदर भजन से ‘शिव को ब्याहने चले’ ‘भोले की बारात चली सज धज चली’ सहित अन्य पर नाचे झूम श्रद्धालुओं ने आनंद लिया व शिव विवाह प्रसंग का वर्णन सुन मंत्रमुग्ध हो गए।कहा कि जीवन रूपी नैया को पार करने के लिए राम नाम ही एक मात्र सहारा है। वर्तमान दौर में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो दुखी न हो।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता है कि हम भगवान का स्मरण करना ही छोड़ दें। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहेंगे। राम नाम का स्मरण करने मात्र से हर एक विषम परिस्थिति को पार किया जा सकता है।
लेकिन, अमूमन सुख हो या दुख हम भगवान को भूल जाते हैं। दुखों के लिए उन्हें दोष देना उचित नहीं है। हाथ की रेखा देखकर बोला वो नारद जोगी मतवाला जिससे तेरा ब्याह रचेगा वो होगा डमरु वाला, भजन के साथ शिव पार्वती विवाह प्रसंग पर प्रकाश डाला। पूज्य बापू जी का कहना था कि नारद मुनि भगवान शिव एवं पार्वती विवाह का रिश्ता लेकर आए थे। उनकी माता इसके खिलाफ थी उनका मानना था कि शिव का कोई ठोर ठिकाना नहीं है। ऐसे पति के साथ पार्वती का रिश्ता निभना संभव नही है।
धर्मनगरी खरसिया के नहरपाली में चल रही श्री शिव महापुराण के तीसरे दिन देवी मां पार्वती के जन्म, कामदेव के भस्म होने और भगवान शिव द्वारा विवाह के लिए मान जाने की कथा सुनाई। कथा व्यास संत श्री चिन्मयानंद जी बापू ने कहा कि जब भगवान शंकर माता सती को राम कथा सुना रहे थे, तभी आकाश मार्ग से कई देवता जा रहे थे। सती के पूछने पर भगवान शंकर ने बताया कि दक्ष प्रजापति ने घमंडवश ब्रह्मा, विष्णु व महेश का अपमान करने के लिए अपने घर महायज्ञ का आयोजन किया था। इसमें तीनों देवताओं को नहीं बुलाया गया। सती ने जब वहां जाने की इच्छा जताई तो भगवान शंकर ने बिना बुलाए जाने पर कष्ट का भागी बनने की बात कही। इसके बाद भी सती नहीं मानी और पिता के घर चली गई। यज्ञ में भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा का अपमान देखकर हवन कुंड में कूदकर खुद को अग्नि के समर्पित कर दिया। इसके बाद भगवान शंकर के दूतों ने यज्ञ स्थल को तहस-नहस कर दिया। भगवान शंकर भी शोकाकुल होकर समाधि में लीन हो गए।
कालांतर में माता सती देवराज हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पैदा हुईं। वहां पहुंचे देवर्षि नारद ने हिमालय राज और माता मैनावती के सम्मुख बेटी का भाग्य बताते हुए कहा कि इसे जो वर मिलेगा वह शिव जैसा होगा। माता पार्वती ने भगवान शिव को ही पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या शुरू कर दी।
दूसरी ओर भगवान शंकर समाधि में लीन थे। देवी पार्वती का शिव से विवाह कराने के लिए समाधि भंग करना जरूरी था। ऐसे में देवताओं ने कामदेव को भेजा। कामदेव ने ध्यान भंग करने का प्रयास किया तो नाराज भगवान शंकर ने तीसरा नेत्र खोल दिया। जिससे कामदेव वहीं भस्म हो गए। कामदेव की पत्नी रति विलाप करते हुए भगवान शंकर के पास पहुंची। क्षमा याचना के बाद शिव ने कामदेव को द्वापर युग में श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में जन्म लेने का आशीर्वाद दिया था। समाधि टूटने के बाद भगवान विष्णु ने भगवान शंकर से पार्वती को पुन: अंगीकार करने की प्रार्थना की। भगवान शंकर ने सप्तऋषियों को पार्वती की परीक्षा लेने के लिए भेजा। पार्वती ने केवल शिव को ही अपना वर चुनने की बात कही। इसके बाद शिव पार्वती को पुन: अपनाने के लिए राजी हो गए।
प्रभु श्रीराम की कथा से पूर्व भगवान शिव की कथा जरूरी
कथा वाचक संत चिन्मयानंद जी बापू ने श्री शिव महापुराण की मंगलवार को कथा को विस्तार देते हुए कहा कि भगवान राम और शिव एक दूसरे की पूजा करते हैं। ऐसे में भगवान राम की कथा तब तक आरंभ नहीं हो सकती है, जब तक भगवान शिव की कथा न सुन ली जाए। राम की यह कथा भगवान शिव ने माता सती को भी सुनाई थी।
कथा व्यास ने कहा कि प्रयागराज में कुंभ में पहुंचे भारद्वाज ऋषि ने याज्ञवल्क्य से पूछा था कि राम कौन हैं। इस पर उन्होंने कथा सुनाते हुए कहा था कि त्रेता युग में भगवान शिव ने कुंभज ऋषि से यह कथा सुनी थी। कथा सुनने के लिए भगवान शिव माता सती के साथ कुंभज ऋषि के आश्रम में पहुंचे। वहां ऋषि ने भगवान शिव व माता सती की पूजा की। इससे माता सती के मन में संशय पैदा हो गया। कथा में उनका मन नहीं रमा। कथा समाप्त होने पर कैलाश लौटते समय रास्ते में पत्नी वियोग में भटक रहे भगवार राम को देखकर शिव ने उन्हें प्रणाम किया। यह देख सती को फिर संशय हुआ।
भगवान शंकर ने बताया कि यही मेरे अराध्य राम हैं। संशय वश माता सती ने सीता का रूप धारण कर राम की परीक्षा ली। राम ने सती को पहचान लिया। भगवान शिव ने भी अपने योग बल से इस घटना को देख लिया। इसके बाद कैलाश पहुंचकर महेश्वर समाधि में लीन हो गए। 86 हजार वर्ष बाद जब उनकी समाधि टूटी तो माता सती की हालत देखकर वे दु:खी हो गए और वहीं अपने सम्मुख बैठाकर राम कथा सुनाई थी।